Saturday, October 24, 2009

इन्डीब्लागर आफ़ द मन्थ!!

ब्लागर दोस्तो!! हमरा ब्लाग पहली बार कही नामिनेट हुआ है॥ हा जी हमने खुद ही  किया था :) लेकिन अच्छा लग रहा है कि कही नामिनेट तो हुए और १८४ और महान ब्लाग्स है जिनसे काम्पटीशन है॥ आपको यदि हमारी कविताये अच्छी लगी हो, तो प्लीज़ वोट करे..

आप ५ वोट कर सकते है… मेरे साथ कुश जी और पुजा जी भी नामिनेटेड है जिन्हे आप भी जानते होगे कि वो कितना अच्छा लिखते है॥

 

 

 

देखे, विचारे और मोहर लगाये॥

http://www.indiblogger.in/vote.php?entry=723

धन्यवाद!!

(बाकी इलाहाबाद meet को फ़ालो करते रहिये, हम भी कान लगाये हुए है…ज्ञान जी कब बोलेगे, उनका बेसर्बी से इन्तज़ार है॥)

Friday, October 23, 2009

कागज़ की नाव थी, समन्दर मे बहाते रहे…….

सुबीर जी ने अभी दिवाली के मौके पर एक मुशायरे का आयोजन किया था जिस मे मै देर मे अपनी रचना भेज पाया। उनके ब्लाग से ही पढा कि उनका स्वास्थ्य ठीक नही है। काश वो जल्दी से ठीक हो और हमारे जैसे लोगो का मार्गदर्शन ऎसे ही करते है॥

ये आपके लिये सर!!!

 

“दीप जलते रहे,  झिलमिलाते रहे…… ।
एक – एक करके हम, यादो को जलाते रहे.. ॥

याद आया वो रास्ता, जो एकदम सीधा था…। 
मगर जाम लडते रहे, हमारे पैर लड्खडाते रहे..॥

गुरूर था कि, वो हमेशा मेरे साथ है…।
कागज़ की नाव थी,  समन्दर मे बहाते रहे.. ॥

कुछ पत्थर हमने, कभी आसमा की तरफ़ फेके थे..।
पथरीली ज़िन्दगी है.., ये खुदा को बताते रहे..॥

जाने कितनी दफ़ा…, कत्ल किया अपनी रूह का..।
फिर पहन कर फार्मल्स, दाग-ए-लहू छुपाते रहे…॥

दिल की कुछ ताको मे, रोशनी आजतलक नही पहुची..।
दीवाली का मौका था, ’पन्कज’ मोमबत्तिया जलाते रहे…॥”

गलतियो के लिये माफ़ करे.. ज्यादा जानकार नही हू बस लिख लेता हू…. ॥

Wednesday, October 7, 2009

सिगरेट..

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सिगरेट के धुये मे,
कुछ शक्ले दिखती है,
मुझसे बाते करती हुयी,
कुछ चुप चाप.....
और सिगरेट जलती जाती है...
जैसे वक्त जल रहा हो,

 

 

गये वक्त को मै,
ऎश की तरह झाड देता हू
और वो माटी के साथ मिल जाता है,
खो जाता है उसी मे कही......

बस होठो पर एक रुमानी
अहसास होता है,

कहते है कि वक्त को जलाने का भी
अपना ही मज़ा है......

Monday, October 5, 2009

कॉफ़ी विद मी…

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चाहता हू एक दिन
अपने साथ बैठू,

एक कॉफ़ी हो और
हम दोनो ढेर सारी बाते करे,
हँसे, खिलखिलाये ….
एक दूसरे को और जाने…

मै उससे पूछूँ कि वो
इतना गम्भीर क्यूँ है?
और बताऊँ कि क्या
मजबूरियां है मेरी,
जो मै उससे मिल नही पाता…

उससे पूछू कि क्यूँ
उसने मुझे तन्हा छोड दिया है,
झगडूं उससे…….
और कह दूं कि मुझे उसकी कोई जरूरत नही है……

मै जी सकता हू अपनी आत्मा के बिना…

लेकिन…
वो तो कही खो गया है, या
मुझ जैसा ही हो गया है……॥

Sunday, October 4, 2009

सम रैन्ड्म थिन्ग!!

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आफ़िस की मोनोटोनस और उबाऊ ज़िन्दगी से त्रस्त आकर एक लम्बी छुट्टी पर घर गया था..वो ज़िन्दगी देखने जिसने यहा तक पहुचाया है..

वो टेरेस जिसपर टहलते हुए मै अपने आप से बात करता था..वो सारी बाते… जो मै किसी से नही कर पाता था……मैने ईश्वर को हमेशा अपने पास मुझसे बात करते हुए पाया…… वो मुझमे ही कही था..उस टेरेस पर ही कही….

ज़िन्दगी बहुत धीरे चलती है वहा, इतनी धीरे की हर मन्जर डूबने का मौका देता है और यहा कोई लम्हा बीत जाने की खबर भी नही लगती..बस सिगरेट के धूए मे कभी कभी अपने आप से मुलाकात हो जाती है…और वही धूआ कुछ चेहरे दिखा देता है..

शादी के लिये बाते शुरु हो चुकी है और ज़िन्दगी की किताब पर फिर से किसी ने लिखना शुरु कर दिया है…कभी कभी मन करता है कि काश इस किताब का आखिरी पन्ना पढ सकता…

कभी कभी मन करता है कि काश कोई मुझे ज़िन्दगी के फ़ार्मूले समझा सकता क्युकि मेरे लिये ये हमेशा ही आर्ट थी……