Monday, June 28, 2010

एक रिकर्सिव कहानी…

raindance मुम्बई की बारिश कभी किसी को काम पर जाने से नहीं रोकती… ये या तो तब शुरु होती है जब आप सो रहे होते हो या तब जब आप ओफ़िस निकल चुके होते हो… इसलिये बारिश की छुट्टी लेने के ख्याल अकसर सूखे ही रह जाते है…

ओफ़िस से अभिषेक आज थोड़ी जल्दी निकल आया था। बाहर बारिश हो रही थी… अपने छाते से अपने को भीगने से बचाते बचाते वो उस रोड तक पहुँच चुका था जहाँ से उसे घर के लिये रिक लेना था… रिक दिखते ही वो उसे हाथ हिलाकर रोकने की कोशिश करता… पर काफ़ी टाईम से किसी रिक ने उसकी तरफ़ देखा तक नहीं था…   इसी दौरान कभी कभार अपने छाते को हटाकर आसमान की तरफ़ देख लेता… ये बूँदें आखिर आती कहाँ से हैं … एक पल उसके और बादलों के बीच दूर दूर तक कुछ नही होता… फ़िर बूँदें न जाने कहाँ से अवतरित होती और धीरे धीरे बड़ी होती जातीं… फ़िर उन बूंदों का उसके चेहरे से ऎसे स्पर्श होता जैसे कोई बड़े प्यार से उसके चेहरे को हर तरफ़ से चूम रहा हो।

- आपको बोरीवली जाना है?

किसी मीठी सी आवाज़ ने उसकी एकान्तता मे दखल दिया था..

- क्या?

- आर यू गोइंग टु बोरीवली?

- या…

’क्यूं’ पूछने से पहले ही वो अगली लाईन बोल चुकी थी।

- आज रिक की काफ़ी शोर्टेज रहेगी सो अगर रिक मिलता है तो हम दोनो साथ जा सकते हैं…

उसने वो बात कहकर मुंह घुमा लिया… और आते हुए रिक्स को हाथ दिखाने लगी…  अभिषेक फ़िर अपनी दुनिया में खो गया…कहीं मेरी शक्ल किसी और से नहीं  मिलती न…?? न!, ये मेरे साथ तो नहीं  हो सकता… ये मेरी किस्मत तो नहीं  हो सकती कि हल्की हल्की बारिश हो… एक अन्जान लड़की हो… और वो भी एक रिक में जाने के लिये तैयार… नहीं नहीं … शी इज़ मिस्टेकिंग मी विथ समबडी…

- मै टाटा पॉवर से दूसरा रिक ले लूंगी। आप इसे लेकर निकल जाना…

 

दिखने में तो बहुत सामान्य है… आँखों  पर स्पेक्स हैं और शरीर पर एक बहुत ही नोर्मल सा सलवार सूट… मुस्कराती है तो सारे दांत दिखते हैं… कम्बख्त दांत भी एकदम करीने से लगे हुये हैं… और मेरे…… जैसे जहाँ जिसको जगह मिली निकल लिया और जगह कब्जिया कर बैठ गया…

कहाँ पिछले आधे घंटे से उसे कोई रिक्शे वाले ने भाव नही दिया था और कहाँ उसे आये हुए अभी दो मिनट भी नही हुये थे कि अचानक ही एक टैक्सी अवतरित हुयी… पीछे वाली सीट पर एक आंटी अंकल पहले से बैठे हुये थे… ड्राईवर ने उसे आगे बैठने के लिये कहा। वो आगे बैठते हुये उससे बोली “कम ना? ही इज़ गोइंग तो टाटा पॉवर। वहाँ से रिक ले लेंगे…”

ये तो साफ़ साफ़ जाहिर था कि वो टैक्सी ’उसे’ लिफ़्ट देने के लिये नहीं रुकी थी… लेकिन वो तो बुला रही थी और वो भी इतने हक से… मना करना बनता भी नहीं था… वो मना करना चाहता भी नहीं था…

- कम ना? फ़ास्ट?

टैक्सी के आगे वाले पोर्शन मे आधी जगह ड्राईवर की थी और बाकी आधी जगह मे उसे, उस बन्दी के साथ एडजस्ट करना था… बीच बीच मे टैक्सी का रोटेटिंग गियर भी कभी कभी एक दो राउंड मार जाता था। वो खिड़की से चिपककर उसी मे सिमट गया था और उसकी एक बांह लड़की के पीछे से होते हुए ड्राईवर से कुछ पहले तक जाती थी… सबलोग टैक्सी मे बैठ चुके थे… टैक्सी के इंजिन की आवाज के साथ साथ उस टैक्सी मे मौन का एक निर्वात बन चुका था। सब उसी मे तैर रहे थे…चुपचाप… । अपनी खिड़की से चिपका हुआ अभिषेक बाहर एकटक देख रहा था और अपने ही मौन मे उस लड़की से पूछने के लिये सवालों की रूपरेखा तैयार कर रहा था… सवाल सोंच रहा था… उन्हें जरूरत के मुताबिक फ़िल्टर कर रहा था… वो उस एंजेल को जानना चाहता था जिसने  एक पल को ही सही  पर उस बरसती बारिश में उसकी धूल भरी किस्मत से धूल की एक पर्त झाड़ी थी…

अचानक ही उसे इस मौन से घुटन होने लगी…

- यू वर्क इन निर्लोन काम्प्लेक्स?

- यप, आई एम वर्किग विथ डायचे बैक

- ओह्ह… डायचे बैक… टेक्निकल ओर फंक्शनल साईड?

- फंक्शनल बेसिकली

- ह्म्म… ……अच्छा डोंट यू थिंक बॉम्बे की बारिश भागते हुये बॉम्बे को थोड़ा स्लो कर देती है…?

- तुम मुम्बई से नहीं हो??… ……फ़िर कहाँ  से हो?

- लखीमपुर…

- क्या?

- लखनऊ के पास है… तुम कहाँ से हो?

- बोर्न एंड ब्रोट अप इन बॉम्बे… वैसे हम लोग राजस्थान को बिलोंग करते हैं…

- ह्म्म… मतलब ये बारिश तुम्हारे लिये नयी नहीं है?

- (मुस्कुराते हुये) यहाँ फ़ेमिली के साथ रहते हो?

- नहीं…… रूममेट्स के साथ

ये सवाल थोड़ा डायरेक्ट नहीं था… बंदियां कितना कुछ तो डायरेक्ट पूछ लेती हैं… लगती तो बैचलर है लेकिन सेल बार बार देख रही है जैसे कोई इंतज़ार कर रहा हो… माईट भी मैरिड… माईट भी बोयफ़्रेन्ड… हू नोज़?… कहीं वो ये तो नहीं चाहती कि मैं उससे उसका नंबर मागूँ…

- अभिषेक हीयर

- तिथी…

- तिथी, तुम न होती तो शायद मैं अभी भी वहीं रिक का वेट कर रहा होता…

- अभी नहीं कर रहे हो न? (अपनी करीने से लगी बत्तीसी दिखाते हुये)

यूं तो अभिषेक खिड़की से बाहर देख रहा था लेकिन पलटकर उसको मनभर कर देखना चाहता था… उस कन्जस्टेड जगह मे कभी कभी अभिषेक तिथी  को छू जाता तो कभी कभी तिथी की गर्दन अभिषेक की बांह पर जैसे रह जाती … उस बरसती बारिश मे कितना कुछ तो उनके भीतर बरस जाता  फ़िर भी दोनो सहज बने रहते। वो टैक्सी की सामने वाली विंडो से एकटक सामने देखती रहती तो वो साईड वाली विंडो से… कभी कभी वो सामने वाली विंडो से बाहर देखने की कोशिश भी करता…

- तुम बोरीवली मे कहाँ  रहते हो?

- नेशनल पार्क

- नेशनल पार्क में ? (अपनी ट्रेडमार्क बत्तीसी दिखाते हुये)

- आई मीन नेशनल पार्क के पास… …और तुम?

- मुझे वेस्ट जाना है…

टाटा पॉवर आ चुका था। बारिश अभी भी हो रही थी। लोग वहाँ रिक्स के इंतज़ार में खड़े थे। वो दोनो टैक्सी से उतरे ही थे और उन सारे लोगों की किस्मत को दरकिनार करते हुये उसकी ख़िदमत में  एक रिक हाजिर हो चुका था…

- मैं घर तक ड्राप कर दूं… वहाँ से रिक लेकर मैं अपने घर निकल जाऊगा।… (ओफ़र थोड़ा अटपटा था)

- अरे! ……मैं इधर जा रही हूँ और तुम्हें उधर जाना है… यू नो एकदम अपोजिट…

- कम्बख्त टाटा पावर को भी इतनी जल्दी आना था…  अच्छा… ………तुम न मिलती तो शायद मैं  अभी भी वहीं रिक का वेट कर रहा होता…

उसकी ट्रेडमार्क बत्तीसी सामने आ चुकी थी… उसने एक पल अभिषेक को देखा फ़िर अगले पल उसके पीछे खड़े एक बन्दे को… उसकी भी शक्ल से ही लग रहा था कि कितनी देर से वो अपनी धूल भरी किस्मत के सहारे एक रिक के लिये खड़ा है…

- आपको वेस्ट जाना है? आर यू गोइंग टु बोरीवली वेस्ट?

- हाँ…

- मैं भी उधर ही जा रही हूँ… कम ना? वी कैन शेयर दिस रिक।

 

…… इधर अभिषेक फ़िर रिक के इंतज़ार में खड़ा था।

Monday, June 14, 2010

आसमान के पेशेवर होने से बस थोड़ा सा पहले…

DSCN1655 लोकेशन – कोयमबटूर… साल २००७ के जुलाई महीने का पहला हफ़्ता… दो महीने चली एक रिगरस ट्रेनिंग के बाद आने वाले ४-५ दिनों में हमें अपनी अपनी ब्रांच लोकेशन्स में रिपोर्ट करना था… फ़ोटो खिंचाई अभियान जोरों शोरों पर था और स्लैम बुक भरवाई कार्यक्रम भी… दो महीने  में बने रिश्ते नाते छलक रहे थे… रोज़ थोड़ा थोड़ा सेन्टियाना बनता था… सुंदरियों को विदा करने वालों की लाईने लगीं थीं  और कई आधी अधूरी कहानियां बिखरने को तैयार थीं… प्रोफ़ेशनल ज़िंदगी में पहला कदम था और पेशेवर हवाओं में सिगरेट के छल्ले उड़ाने के अरमान…

उस दिन ओफ़िशियल ग्रुप फ़ोटो खींची जानी थी… मै हमेशा की तरह लेट था… पहुँचते ही किसी की आवाज़ आकाशवाणी की तरह आयी थी कि आईये ’पंक्चुअल पंकज’, क्या बात है हमेशा की तरह टाईम पर और हम अपनी बत्तीसी नपोरते हुये फ़ोटो के लिये खड़े लोगों में जगह बनाते हुये कहीं खड़े हो गये थे… जैसे दिमाग में  लेट में  दाखिल हुआ कोई विचार, दिमाग की पहले से बजा रहे विचारों के साथ जगह बनाकर खडा हो जाता है…

अगर कुछ दिन और पीछे चलें, तो कहानी यूं थी कि कोई मैडम (कुंवारी थी या R001-027मैरिड, उससे आपको क्या  लेना देना…) क्लास मे अलग अलग जगहों से आये हुये लोगों को एक दूसरे के और करीब लाना चाहतीं थीं… यू नो ’टीम स्किल्स’… तो चूतियापे भरा काम यह था कि आपको अपने नाम के पहले अक्षर से शुरु होने वाला कोई विशेषण, अपने नाम के साथ बोलना था और आपके बाद पड़ने वाले लोगों को आपका नाम उसी विशेषण के साथ बोलना था… हमेशा की तरह सबसे पहली दुनाली हमारे सीने पर रख दी गयी… दिमाग के भीतर के सारे वायर्स बडी मुश्किल से एक विशेषण ला पाये और एक स्लो मोशन में जैसे हमारे अन्दर से फ़ूटा - ’पंक्चुअल पंकज’। निकलते ही आत्मा को समझ आ गया कि बॉस! तुमने अपनी ही गोल पोस्ट मे गोल दाग दिया है… और ठहाकों की आवाज जैसे दर्शक दीर्घा मे उस गोल के होने की खुशी को बयान कर रही थी… किसी अत्यंत खुश दर्शक की खुशी से भरी एक लाईन भी मार्केट में उसी वक्त आयी थी – “साले तो रोज बस क्या ड्राईवर लेट करवाता है…”  :(

अब उन्हे मैं कैसे बताता कि साला मेरा रूममेट है जो मुझसे आधे घंटे पहले का अलार्म लगाता है और उसके बाद एक घंटे वो रूम से अटैच्ड उस इकलौते पाखाना+गुसलखाना टाईप कमरे में। मेरे अलार्म में मुझे उठाने की हिम्मत कभी नहीं रही… वो ’कोशिश करने वालो की हार नही होती’ की तर्ज पर हर पांच मिनट के बाद मुझे उठाने की कोशिश करता और फ़िर थक हारकर किसी तकिये के नीचे, नही तो मेरे पेट के नीचे… नही तो बेड के नीचे पड़ा मिलता। सुबह सुबह उसे देख यही लगता कि उसने आत्महत्या के कई असफ़ल प्रयास किये हों… नहीं तो मुझे जगाने के…

मेरा रूममेट, मेरा भाई, मेरा दोस्त, मेरा सच्चा दोस्त… अपने सारे क्रियाकलाप खत्म करने के बाद टाई पहनते हुये मुझपर अहसान करते हुये मुझे जगाते हुये कहता कि “जल्दी कर, बस आ गयी है” और फ़िर अपनी टाई बाँधने में मशगूल हो जाता… उठते ही मैं उसकी स्वार्थी कम दयावान टाईप पर्सनालिटी पर गर्व करता कि आज ये न होता तो क्या होता :( :)… और उसके टाई बांधकर, लिफ़्ट से नीचे जाते हुये बस मे बैठकर सबसे ये कहने से पहले कि चलो उसे लेट हो जायेगा, मुझे सारे क्रियाकलाप खत्म करते हुये बस तक पहुँचना होता था… अब इतना तो आपको अंडरस्टुड होगा ही कि ’सारे क्रियाकलाप’ मतबल ’सारे’ से ’कुछ कम’… ;) डियो वियो का जमाना है बॉस…

हाँ तो ग्रुप फ़ोटो के लिये जगह मिल गयी थी… ’पंक्चुअल पंकज’ जुमले ने जो आड़े तिरछे दांत नपोरवा दिये थे वो फ़ोटू लेने वाले भाईसाहेब को हजम नही हो रहे थे… कह रहे थे कि ’इस्माईल दो, दांत मत नपोरो’… अच्छा हुआ मन में हंसने के लिये नहीं कहा नहीं तो हमको तो उसकी प्रैक्टिस भी नहीं थी… खैर… कोडैक क्लिक हुआ… इस्माईल किये हुये और सबने उस लम्हे की एक एक कोपी की गुज़ारिश भी कर दी और अपनी अपनी चकाचक, रंगारंग स्लैमबुक निकालकर बैठ गये… हाय हमें लगा कि हम फ़िर से लेट… दौड़ कर बगल वाली स्टेशनरी की दुकान से एक ५ रूपये की डायरी उठा लाये और बिछा दिये सबके सामने…

आज घर की सफ़ाई करते हुये वही डायरी मिली… खोयी हुयी अच्छी चीज़ें, सरप्राईज के साथ मिलने पर मूड बना जाती हैं… इस डायरी ने भी बखूबी अपना काम अंजाम दिया… ये पोस्ट हिमान्शु जी और अन्य लोगों को डेडीकेटेड है जिनके मूड को मेरी लास्ट पोस्ट की वजह से डाउन होना पड़ा… उम्मीद है एक मुस्कराहट दे पाउँगा जैसे इस डायरी ने मुझे दी है…

इसी डायरी से हमारे लिये कही गयी कुछ अनसेन्सर्ड तारीफ़े ;) 


- अबे कंजूस, एक अच्छी स्लैम बुक खरीद… I have only two words for you (Hope you had seen WWF some point in your life!!)  MISS U :(

- भाभी को सिद्धार्थ का प्यार देना ;)

- ’बक भो……’  वेल स्पोकेन!!

- What a jolly person you are! रियली तुम्हारे बिना तो बस मे माहौल भी नही बनता था… तुम्हारे कमेन्ट्स on GPL ceremonies were ‘wunderwar’… And timely asking ‘BHAI KUCH HO TO BATA DENA……’

- Punctual Pankaj!! साला लोगो को पागल समझ रखा है क्याR001-019? लेकिन फ़िर भी मैं पागल  हूँ। तेरे लिये मैं ये भी करने को तैयार  हूँ। साले एक तेरे कारण हम लोगो को स्मोक करने के लिये इतनी दूर जाना पड़ता है… साला जरूरी था कैम्पस के अन्दर स्मोक करना… कुछ नही इस कारण लोगो से मुलाकात हो जाती है। और पता है in the beginning of ILP लोग कहते थे कि पंकज लोगों  की मारता रहता है तो मै लोगों से कहता था कि कौन है साला…तुम लोगों को मारना नही आता क्या… जब मिला तो पता चला कि कौन है साला। साले डीजी की इतनी मत मारा कर और पीयूष की भी… साले तू वो दिन याद करना जब तेरे कारण कोलिन सर ने हम लोगों  को डांटा था… साले कम पी लिया कर… चल कोई नही, ज्यादा नहीं लिखूंगा, नहीं तो कहेगा कि साला interactive हो गया है…

- Hi Tau! you are very nice, ugly, technically bullshit… ताई से कब मिला रहा है…… अभी जो लिखा सब बकवास। you rock man!!

- Hello Pankaj! Nice to have you as a friend. Its so nice that you are so caring, good at heart, try to calm others, solve their problems. You have such a great knowledge about everything. Be the way you are. Don’t change and do take care of yourself. You’ll surely achieve all the success… Have a great life ahead. Don’t forget us. You’ve got a good smile :)

- Hi Pankaj! I met you in ILP and our whole batch feels that you are very intelligent person. (बहुत हो गया क्या?) You are very nice person. got a great sense of humor and one good thing about you is you care for others. Keep it up. Keep smiling. Wish a great future… Dont forget us. keep in touch..

- Hello Pankaj! You are a very good, helpful and smiling friend and I would also like to mention that you are technically very strong. So मुम्बई मे doubts clear kar dena.. Keep in contact in “Mumbai”.

- Enjoy Life… उठा ले!!:)


Thursday, June 10, 2010

वो लोग जो पहाड़ हैं…

वो हमारी कम्पनी का फ़ेस है… कम्पनी का मेन गेट खोलिये और दीवार पर लगे कम्पनी के एक बड़े लोगो(Logo) के साथ साथ, कानों में हेडसेट लगाये हुये उसकी मुस्कुराहट आपका स्वागत करती है। हमारी कम्पनी की सारी इनकमिंग और आउटगोइंग कॉल्स भी बिना उसकी इजाजत के कहीं कनेक्ट नहीं होतीं…

अभी एक हफ़्ते पहले ही एक ईमेल ब्राडकास्ट आया कि उसके शौहर इस दुनिया में नही रहे… पढते ही जैसे सब कुछ एक पल के लिये  रुका था और फ़िर से उसी स्पीड से चलने लगा था। जो भी हुआ था उसकी गवाही देने के लिये फ़्रीज हुआ सिर्फ़ वो एक पल था जो इन दो-तीन दिन में आये असंख्य पलों में खो गया था। बस इतना ही हुआ था…

परसों से वो फ़िर से हमारा फ़ेस बन गयी है। मुस्कराहट शायद थोड़ी  फ़ीकी है पर सारी कॉल्स वैसे ही कनेक्ट होती हैं।

दो दिन से मैं न उससे कुछ कह पाया था और न कुछ पूछ पाया था। सिर्फ़ ’सो सैड’ कहना मुझे आया नहीं और उन दो दिनों में जब भी अपनी निगाहें मिलीं मेरा सर एक आटोमैटिक मशीन की मानिंद नीचे झुक गया… बोलने को कुछ ढूंढा तो साले शब्द भी सर झुकाये कहीं कोने में घुसे मिले…

आज सुबह जल्दी ही ऑफिस चला गया था। अपनी फिंगर,  ’स्वाईप मशीन’ में स्वाईप करने के बाद जैसे ही दरवाजा खोला वो सामने थी… निगाहें मिलीं…  उसने ’हैलो’ बोला… मैने उसका हाल चाल पूछा…

उससे पता चला कि उसके पति को काफ़ी पहले से कैंसर था और उसके सास-ससुर मेडिकल ट्रीटमेन्ट को छोड़कर ब्लैक मैजिक में ज्यादा विश्वास रखते थे।  इसके जबरदस्ती करने पर ऑपरेशन  तो करवाया गया लेकिन बाद में कीमोथेरेपी में लापरवाही दिखायी जाने लगी और ओझाओं -तांत्रिकों पर ज्यादा विश्वास किया जाने लगा। उसकी हालत दिन पर दिन बिगड़ने लगी थी और वो ये सब देख पाने में असमर्थ थी। अपनी आँखों के सामने अपने ही शौहर को तिल तिल मरते देखना बहुत ही मुश्किल था। इनफ़ेक्शन दिमाग तक फ़ैल रहा था। वो सबसे लड़ -झगड़ कर फ़िर से उसे लेकर किसी बड़े  न्यूरोसर्जन के पास गयी। न्यूरोसर्जन ने देखते ही हालात का अंदाज़ा कर लिया था:

- …… Go back to your Cancer Doctor

- OK…… any idea how much time he has now?

- To be honest, 4-5 months.

ये कहते कहते उसकी पलकें गीली हो चुकी थीं और आँखें एकदम लाल।

- पता है पंकज, मैं उसे घुट घुट कर मरता नहीं देख सकती थी। वो घर मुझे काटने लगा था इसलिये मैं अपने मम्मी-पापा के पास चली आयी और बेबी को भी ले आयी। हर वीकेंड उससे मिलने जाती थी  तो सास-ससुर मुझे खूब सुनाते थे लेकिन तब भी जाती थी… बेबी को भी ले जाती थी…कि तीनो इन लास्ट मूमेन्ट्स में  थोड़ा साथ रह लेंगे … शायद उसे अच्छा लगेगा… पर  एक दिन मेरी सास ने बोला कि ’तू निकाहनामे के लिये आती है न? जा नहीं देंगे  तेरा निकाहनामा… हराम की औलाद कहलायेगा न? हराम की औलाद है तो कहलाना ही चाहिये!!…’

उसकी गीली और लाल आँखों पर लगा स्पेक्स भी लाल होता जा रहा था… वो अपने दुपट्टे के किनारे से आंसू पोंछती  जा रही थी और उसी बीच कॉल्स भी आ रहे थे और इंटरव्यू  देने के लिये लोग भी… कम्बख्त कुछ भी नही थमता था…

- पता है वो हमेशा अज़ान के वक्त प्रेयर करना चाहता था लेकिन हम कभी इतनी सवेरे उठ नही पाते थे। मैने २-३ वीक्स से उसके घर जाना छोड़ दिया था। क्या कर सकती थी? उसे ऎसे मरते हुये नहीं देखा जाता था… पता है मैं उसे मिस नहीं करती इवेन मुझे खुशी होती है कि वो चला गया। वो बहुत तकलीफ़ में था… और मैं चाहती थी कि उसे कोई तकलीफ़ न हो…

- पता है सुबह की अज़ान के वक्त ही……  शायद, वो जाते जाते प्रेयर कर पाया……

 

कॉल्स अभी भी आ रहे थे और इंटरव्यू के लिये लोगों की भीड़ भी बढती जा रही थी… मै उससे ’बाय’ करके अपने क्यूबिकल की ओर बढ रहा था और पीछे इंटरव्यू के लिये आये लोगों  को नियंत्रित  करती, उसकी आवाज़ आ रही थी:

- Kindly take your seats. HR people will be coming in a while…

 

सच में वो लड़की नहीं पहाड़ है…  

 

*नानावती हॉस्पिटल ओपीडी मे लिखी

Monday, June 7, 2010

राजनीति – मेरी नज़र से

poster-1 किसी फ्लॉप मूवी का एक डायलाग था कि यूपी-बिहार में हर घर में एक आईएएस, एक नेता और एक गुंडा होता है… मुझे ये कथन बड़ा जमीनी लगता है।

मेरे बाबा एक स्वतंत्रता सेनानी थे और एक कट्टर कांग्रेसी। मुझे याद है बचपन मे वो मुझे आजादी की लड़ाई के किस्से सुनाया करते थे और मैं उनकी बोर बातों से दूर भागता था। अभी अपनी सोंच बन भी न पायी थी कि पता चला था कि पापा और चाचा किसी चुनाव में बीजेपी को वोट देकर आये थे और हमें  ये बात बाबा को नहीं बतानी थी। राजनीति को बाबा, पापा और चाचा की नज़र से ही देखता था। जब तक बाबा जिंदा रहे कांग्रेस के नाम से घर में हल्ला मचा देते थे। उनके जाने के बाद घर में कई बार ऎसा भी हुआ कि पापा बीजेपी को वोट देते थे और चाचा सपा को और कई बार घर के आठ वोट एक जगह पर भी गिरते थे।

इस मुद्दे पर मेरी समझ अभी भी नहीं  बन पायी है। कुछ साल पहले जब लखनऊ में भविष्य की  दिशाओं की खोज कर रहा था, तब अटल जी से जरूर प्रभावित था। कुछ समय ’विद्यार्थी निवास’ में रहा भी, जहाँ रहकर अटल जी ने कभी अपने पिता जी के साथ एक ही कक्षा मे वकालत(Law) की पढाई की थी। उनको कुछेक पत्र भी लिखे और इन बातों पर कई बार मित्रों के बीच हंसी का पात्र भी बना। एक बार राउरकेला में एक पर्सनालिटी डेवलपमेन्ट क्लास के दौरान काउंसलर ने क्लास से पूछा कि आपमें से कितनों में  लीडरशिप क्वालिटीज़ है? कितने लोगो को लगता है कि वो लीड कर सकते हैं? मेरा हाथ तुरंत हवा में उठ गया। मै सबसे आगे वाली पंक्ति में था। आस-पास देखा… फ़िर पीछे घूमकर देखा तो सिर्फ़ मेरा हाथ ही हवा में था…

गुजरात में  दंगे  हुये… नये चुनाव हुये… अटल जी अपनी बातों पर अटल नहीं रह पाये… बीजेपी एक लीडरशिप क्राईसिस में दिखी… यूपी में पुराने नेता रद्दियो में बदलते गये और नया कुछ वो ढूढ नहीं  पाये… कुछ ने ’उत्तम प्रदेश’ के सपने भी दिखाये लेकिन साइकिलों के पहियों में ही खो गये… जनसँख्या पर ध्यान देने की बजाय मूर्तियो की संख्या पर नेताओं का ध्यान ज्यादा दिखा… और इन सबने मुझे दूर, बहुत दूर कर दिया। …… अब अगर वो काउंसलर वो सवाल फ़िर से पूछेगी, वो अकेला हाथ भी उसे खड़ा  नही दिखेगा।

 

अभी अभी ’राजनीति’ देखकर लौटा हूँ… कुर्ते-पायजामे से डेनिम-नोन डेनिम पहने हुये  पात्रों को ’सिर्फ़’ राजनीति करते हुये देखा। भीड़ों को भटकते हुये देखा और इन पात्रों को उन भीड़ों को बरगलाते हुये। सबको उस ’कुर्सी’ तक पहुचने के रास्ते तलाशते देखा और उस कुर्सी के बाद एक डेड एन्ड को भी…

इस फ़िल्म ने राजनीतिक गलियारो में घुसते हुये  जो कहानियां दिखायीं, उन्हें  देखकर युवाओं के गंदी राजनीति में जाने के सपने को चोट ही लगनी चाहिये। सच्चाई कड़वी होती है और मै अभी इस कड़वेपन को महसूस कर रहा हूँ…

फ़िल्मी लिहाज से मूवी ने अंत  के कुछ पहले तक बांधे  रखा और अंत में जैसे अपनी ग्रिप छोड़ती नज़र आयी। इंटरवल तक कहानी में एक कसावट थी जिसे मैंने अपने आस पास भी महसूस किया। इंटरवल के बाद की कहानी ओबवियस होती गयी और अंत बेहद फ़िल्मी… फ़र्स्ट हाफ़ तक कहानी महाभारत जैसी लगती रही… सेकन्ड हाफ़ मे जबरदस्ती इसे महाभारत बनाने की कोशिश सी दिखी… कहानी मे काफ़ी कुछ परोसकर रखने के बजाय, बिटवीन द लाईन्स भी छोड़ा जा सकता था… अंत में बचे हुये मोहरों  के बीच करवाया गया युद्ध, महाभारत युद्ध कम और गैंगस्टर वार ज्यादा लगा और उस वक्त समर के हाथ मे दी गयी पिस्टल, एक इंटेलीजेंट पात्र को बेहद फ़िल्मी बना गयी।

 

poster-3आखिर में मुझे बस एक चीज़ ने कचोटा कि क्या होता अगर एक जागरुक, दलित नेता ’सूरज’ जो इस राजनीति में सबसे गंदा होते हुये भी कईयों से साफ़ था, अंत में कुर्सी पर बैठता और न कि ‘इंदु’  जिसने जमीनी सच्चाई कभी देखी ही नहीं थी, जिसे इन सारे पात्रों में से राजनीति की सबसे कम समझ थी?