Sunday, September 19, 2010

कहीं जाते हुये कहीं और चले जाना…

गैस पर रखी चाय खौल रही थी और वो फ़िर कहीं चला गया था…

इसी तरह से वो अक्सर कहीं भी चला जाता था… कभी भी। कभी कभार तो वो कुछ कह रहा होता था और अपनी बात कहते कहते ही वो कहीं चला जाता था और कई बार तो कुछ कहता भी नहीं था…

रोज सुबह उठकर सबसे पहले वो उस ’चले गये’ को ढूंढकर लाता था फ़िर दोनों साथ साथ एक चाय पीते थे और ऑफ़िस जाने की तैयारियां करते थे… ऑफ़िस जाते जाते रास्ते में वो फ़िर से कहीं चला जाता था। जाने कब लौटकर आता था…। उसका यूं जाना उसके अलावा कोई और जान भी नहीं पाता था। 

वो यूं कहाँ और क्यूं जाता था.. ये वो खुद से भी नहीं पूछता था… खुद से पूछना उसे आता भी नहीं था… किसी ने उसे ये विधा सिखायी भी नहीं थी… और तो और कभी उसने किसी को खुद से कुछ पूछते देखा भी नहीं था। इसलिये अक्सर ऎसे मौकों पर वो मौन पाया जाता था…

लोग कहते रहते थे वो मौन रहता था… फोन बजते रहते थे और वो मौन रहता था। कभी सालों बाद उसे किसी रिश्ते की याद आती थी तो वो उसे निभा आता था और फ़िर अगले कई सालों तक वो उस रिश्ते से कहीं दूर चला जाता था। कई रिश्ते उसे भी भुला चुके थे जहाँ से वो कभी चला आया था या वे खुद चले गये थे।

वो किताबें पढते पढते उनमें चला जाता था। उसे यूं समय में आना-जाना बेहद पसंद था और बिना किसी टाईम मशीन के ये किताबें ही उसे समय के इधर-उधर पहुँचाती रहती थीं। चेखव की ’डेथ ऑफ़ अ क्लर्क’ के क्लर्क के साथ साथ वो भी सोचते सोचते जीता रहता था और अगली सुबह जब वो क्लर्क सोफ़े में मृत पाया जाता था, तो वो कहानी तो खत्म हो जाती थी लेकिन वो उसी कहानी में कहीं और चला जाता था… शायद स्वयं ही चेखव को ढूंढने ।

वो कभी कभी उसे झकझोरते हुये उससे पूछती थी कि ’ऎसा क्यूँ करते हो? यूँ कहाँ चले जाते हो?’

’इसमें भी एक नशा है… यूं कहीं भी चले जाने में… पढते हुये, लिखते हुये, सोचते हुये… ’कहीं’ और जाते हुये ’कहीं’ और चले जाना’

तब वो चुपचाप उसे देखती रहती कि एक दिन वो ऎसे ही उससे भी कहीं दूर चला जायेगा

… और वो …वो कुछ सोचते हुये किचेन में चाय चढाने के लिये चला जाता।

Sunday, September 12, 2010

एक कॉफ़ी और ढेरों कोरी पर्चियाँ

kuch_to_hai कुछ पात्र जाने कैसे, कब और क्यूं हमारी ज़िंदगी की फिल्म से जुडते चले जाते हैं… हमारी फिल्म? न… ये ’सिर्फ़’ हमारी फ़िल्म तो नहीं…

ये ज़िंदगी एक ऎसी फ़िल्म है जहाँ कोई मुख्य पात्र नहीं… किसी पात्र् की केन्द्रीय भूमिका नहीं। इस भदेस फ़िल्म में हर पात्र के हाथ में एक कैमरा है और हर दृश्य के ढेरों एंगल्स… कभी जाने – अनजाने मैं किसी और के कैमरे में चला जाता हूँ और कभी ना जाने कैसे, कब और क्यूं कुछ जाने-अनजाने पात्र मेरे कैमरे में आ जाते हैं… e.g ये कॉफ़ी…

(ये कॉफ़ी मेरे कैमरे में है या मैं इसके कैमरे में… फ़िलहाल तो ये सिर्फ़ एक सवाल है। )

मैं अक्सर यहाँ इसी तरह अकेले बैठकर कॉफ़ी पीता हूँ… घंटो इस समंदर से कॉफ़ी के मग में चम्मच चलाते हुये एक भंवर का निर्माण करता हूँ और फिर इस भंवर को एक छोटे से सिप के साथ अपने भीतर उतार लेता हूँ। फ़िर एक नयी भंवर और एक नया सिप…। ये सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक भीतर की सारी भंवरें दम नहीं तोड देतीं।

बचपन में नहाने से पहले भी मैं घंटो, पानी भरी बाल्टी में ऎसे ही भंवरें बनाया करता था। फिर उनके साथ क्या करता था वो याद नहीं… चुपचाप नहा ही लेता होऊंगा और बचपन में किया ही क्या जा सकता था। अभी भी क्या ही कर पाता हूँ!!…

 

’हर की पौडी’ की शांति और ओबेराय माल के इस पल की शांति में सिर्फ़ इतना फ़र्क होता है कि वहाँ सन्नाटे में भी जाने कैसी कैसी आवाजें होती हैं और यहाँ सिर्फ़ एक नग्न सन्नाटा… और इस नंगेपन से भीतर की आवाज भी इतना डरती है कि वो निकलती नहीं… भीतर ही कहीं छुपी बैठी रहती है।

मेरा इस वक्त यहाँ आना भी एक नयी आदत बनती जा रही है… फ़िल्म में यह सीन कुछ ज्यादा ही बार होने के कारण सीन और इस सीन के संवाद रट गये हैं। मसलन जब भी यहाँ आता हूं, समय यही होता है मतलब रात ’आधी’ बस होने ही वाली होती है… और हर बार पूछता भी यही हूँ कि शॉप कब तक ओपेन है? - ११:३०… फ़िर हमेशा की तरह एक ’कैफ़े मोका’ आर्डर करके सारी खाली जगहों में से किसी एक खाली जगह पर बैठ जाता हूँ जहाँ से खालीपन भरा भरा लगे… बहुत सारा उन खाली सोफ़ों का और थोडा बहुत मेरा भी। फ़िर एक पेन और पेपर माँगकर अक्सर ही उस अनप्रिंटेड बिल के पेपर पर कुछ लिखना… (जो शायद उस मशीन में छप जाते तो किसी और के नाम के बिल होते… अभी वो कोरे हैं और मेरे कैमरे के एंगल के अधीन। )

पहले टिशू पेपर पर भी लिख देता था… अब उसपर नहीं लिखता… उस उजले पेपर पर मेरे शब्द किसी दाग जैसे प्रतीत होते थे और उन्हे देख मैं अक्सर सोच में पड जाता था कि मेरे शरीर के दागों से भी शायद किसी के शब्द झलकते होंगे… फ़िर मस्तिष्क में एक तिलिस्मी भंवर बनती जाती थी कि ’किसके शब्द’…  ’किसकेएएएएएए शअअअअब्द’… और मैं तब देर तक कॉफ़ी को हिलाता रहता था।

 

 

लखनऊ में इन दौडते-भागते लोगों से सिर्फ़ चिढ थी… बॉम्बे में ये नफ़रत बनती जा रही है। मानव की कहानी का हंसा मुझे बडा हांट करता है।

जब से वह पैदा हुआ है तब से वह व्यस्त है। उसने कभी किसी भी काम के लिए किसी को भी मना नहीं किया सो वह दूसरों के काम करने में हमेशा व्यस्त रहता था। जो लोग उसे जानते थे वह उससे अपना काम करने को नहीं कहते थे.. वह उसके बदले ’एक ज़रुरी काम की पर्ची..’ उसकी जेब में डाल देते थे, जिसे वह समय रहते पूरा करता चलता था। उसके पास एक जेब की कई सारी शर्टे थी... दो जेब वाली शर्ट पहनने से वह घबराता था। मैंने उससे एक बार कहा था कि तुम बिना जेब की शर्ट पहना करो... तो उसने कहा कि काम की पर्चे वह हाथ में नहीं रखना चाहता है... काम के पर्चे पैंट की जेब में मुड़ जाते हैं... फिर क्या काम करना है ठीक से समझ में नहीं आता है। वह अपने घर के कामों की भी पर्चियाँ बनाकर जेब में रख लेता। अपने काम भी वह बाक़ी ज़रुरी कामों की तरह करता... समय रहते। इन पर्चियों के बीच उसका एक खेल भी था... एक दिन उसने मुझसे कहा था कि वह कई बार कोरी पर्चियाँ अपनी जेब में, किसी महत्वपूर्ण काम की तरह रख लेता... जब वह कोई महत्वपूर्ण काम के लिए कोई कोरी पर्चि निकालता तो खुश हो जाता... वह उस महत्वपूर्ण काम के समय... कुछ भी नहीं करता... और उसे यह बहुत अच्छा लगता था। काम के वक्त काम नहीं करने की आज़ादी बहुत बड़ी आज़ादी थी।

इन दौडते भागते लोगों में मुझे एक व्यस्त हंसा दिखता है… जेब से एक के बाद एक पर्चियां निकालता हुआ और बस उन्हें एक के बाद एक  निपटाता हुआ…

…मन करता है इन सब दौडते-भागते लोगों की  जेबों में ढेरों ‘कोरी पर्चियां’ भर दूँ॥

Wednesday, September 8, 2010

जाने कैसी कैसी आवाजें!

’इनएक्सेसिबिल’

वो अपनी सीट पर बैठने से पहले सीधे मेरी आँखों में एकटक देखती है। उसके यूँ देखने से मुझे अहसास होता है कि मैं भी पिछले कुछ मिनट से शायद उसे ही देख रहा हूँ। अनायास ही मेरे भीतर से एक बहुत दबा हुआ सा ’हेलो’ निकलता है जो दबे दबे उस तक पहुँच जाता है। वो भी मुझे ’हेलो’ बोलती है और उसकी आँखे मेरे अगली बात सुनने के लिये तैयार दिखती हैं। पर उस वक्त मेरी बातूनी बातें मेरा साथ नहीं देतीं और मैं वापस अपनी बॉम्बे टु दिल्ली फ़्लाईट की गोल खिडकी वाली सीट से बाहर के गोल गोल दृश्यों को देखने में लग जाता हूँ।

मेरी एक दोस्त मुझसे हमेशा कहती है कि अगर मुझे किसी एक शब्द में डिफ़ाईन करना हो तो वो होगा ’इनएक्सेसिबिल’। मैं उस गोल खिडकी के बाहर देखता हुआ यही सोचता हूँ कि शायद ये भी वही सोच रही हो।

खैर… दिल्ली उतरने से पहले इस अधेड उम्र की महिला से कुछ बातें हो ही जाती हैं जिनमें से अधिकतर मेरे बैग और लैपटॉप के ब्रांड, मेरे विदेश जाने की संभावनायें, मेरा वेतनमान और छोटे शहरों से बॉम्बे आये लोगों के इर्द गिर्द ही घूमती हैं।

फ़्लाईट से उतरते ही हम दोनो भीड का एक हिस्सा बन जाते हैं।

निशांत मुझसे पहले एयरपोर्ट पहुँच चुका है करीबन २ साल बाद उसे देख रहा हूँ। हम दोनो पवन के फ़्लैट के लिये रवाना होते हैं…

और मेरे जेहन में अभी भी उस महिला की कही कुछ बातें हैं और एक दुविधा भी है कि उनमें शो-ऑफ़ ज्यादा था या स्नाबरी ……या मेरा ’इनएक्सेसिबिल’ रहना ही ज्यादा अच्छा है…


काम का जिक्र करो!

पवन के ही फ़्लैट पर विराग से मिलता हूँ। उसमें अभी भी उन बातों के लिये एक जोश है जिन्हे मैं न जाने कबसे नकार चुका हूँ। वो कहता है कि उसकी पूरी टीम के पास एलसीडी मॉनीटर तक नहीं लेकिन उसकी डेस्क पर एलसीडी के साथ साथ एक लैपटॉप एक्स्ट्रा पडा हुआ है। वो अब काफी आर्गेनाईज्ड लगता है। जरूरत की सारी चीजें उसके पास हैं और उन चीजों की सारी जरूरतें भी। वो कहता है कि ’काम की फ़िक्र मत करो, काम का जिक्र करो’।

पहली बार में तो मैं बुद्धिजीवी बनने की कोशिश के तहत उसे सुनाता हूँ लेकिन बाद में उसकी कही यही बात मुझे बहुत जमीनी लगती है। मैने काम की बहुत फ़िक्र तो नहीं की लेकिन ’खुद’ को तलाशते तलाशते, उसका जिक्र करना कहीं छूट गया। जरूरतें भी छूटती गयीं और धीरे धीरे चीजें भी…

वैसे फ़िक्र का जिक्र करना भी कहाँ बुरा है या जिक्र की फ़िक्र करना… (कुछ नहीं दिमाग पर चढी कुछ जिक्रों-फ़िक्रों का असर है… आप इसे अन्यथा न लें।)


जाने कैसी कैसी आवाजें

अभी तक गंगा जी के लिये लोग गा रहे थे, अब उनकी आरती खत्म होने के बाद गंगा खुद गा रही हैं। पवन एकदम शांत सा मेरे साथ गंगा जी में पैर डाले बैठा है। हम दोनो के बीच कुछ आवाजें इधर उधर से अपनी जगह बनाकर आ जा रही हैं… गंगा के तेज बहने की आवाजें हैं… बगल में एक पिता अपने पुत्र को घाट से लगी जंजीर पकडकर डुबकी लगाने को कह रहा है… एक असफ़ल प्रयास के बाद लडका डुबकी लगा लेता है… उसकी एक असफ़ल और एक सफ़ल डुबकी की आवाज है… दोनो आवाजें लगभग एक जैसी ही हैं। कुछ महिलायें गिलसिया भर दूध गंगा में डालने को कह रही हैं… उनके कहने की आवाज भी है और दूध की धार के गंगा में गिरने की भी आवाज। कुछ लोग पानी मे सिक्के डाल रहे हैं तो कुछ मैले कुचेले कपडे पहने लडके पानी में डाले गये सिक्कों को खींचने के लिये चुंबक फ़ेंक रहे हैं। सिक्कों में भरी हुयी श्रद्धा की भी आवाज है और डोरो से बंधे उन चुंबको में मजबूरी की भी एक आवाज। एक बच्चा एक दिये को पानी में बहा रहा है। छोटा और नासमझ है इसीलिये दिये को गंगा जी की धार की विपरीत दिशा में बहाने की कोशिश कर रहा है… उम्मीदों का वह दिया परेशान सा है कि डोरी और चुंबक लिये वो मैले कुचेले कपडो वाला लडका उस दिये को हल्का हाथ लगाकर नदी के बहाव के साथ बहा देता है। नासमझ बच्चे की उम्मीदों को राह मिल गयी है और शायद ज़िंदगी के लिये एक सबक भी। उस नासमझ बच्चे की खुशी की भी आवाज है और उस समझदार लडके के समझदारी की भी…

हमारे पीछे ही दो-तीन लोगो ने भजन कीर्तन शुरु किया है… मैं उठकर उनके पास चला जाता हूँ… पवन अभी वहीं गंगा जी में पैर डाले बैठा है… कीर्तन में लोग बढने लगे हैं… उन सबके बढने की भी आवाजे हैं और उनके गाने की भी आवाजे हैं। मैं रिकार्ड करने की कोशिश करता हूँ लेकिन मोबाईल धोखा दे जाता है… मैं वापस पवन के पास आकर बैठ जाता हूँ। गंगा के बहने की एक आवाज है… और हमारे कुछ ना कहने की भी एक आवाज…

ट्रेन का टाईम हो गया है। दोनो वहाँ से ऎसे उठते हैं जैसे मन न भरा हो और रेलवे स्टेशन की तरफ़ चल पडते हैं। हमारे चलने की भी आवाज है और हमारे मन के वहीं रह जाने की भी एक आवाज…

Tuesday, September 7, 2010

बुदबुदाती हुयी सी कुछ तस्वीरें…

 

P280810_15.08DSCN0749 DSCN0750DSCN0771 DSCN0794DSCN0807  A room with a windowDSCN0958 DSCN0983DSCN0991 

 

इनमें से कुछ तस्वीरें मैने पवन के कैमरे और अपने मोबाईल से ली हैं और कुछ पवन ने ली हैं। कुछ और तस्वीरें हैं, जो इधर हैं और कुछ पवन के फ़्लिकर पर…